वक़्फ़ बोर्डों के प्रबंधन के लिए लाए गए विधेयक पर पिछले सप्ताह जैसी ज़ोरदार बहस हुई वैसी अब तक बहुत ही कम दिखी है. भारत की संसद में पिछले 25 साल में ऐसा दृश्य शायद ही दिखाई पड़ा था.
इस बहस का असर इतना ज़्यादा था कि राजनीति में दिलचस्पी में न रखने वाले लोगों का भी ध्यान आकर्षित हुआ. केंद्र सरकार की इस पहल का विरोध करने वालों ने जहां ये दलील दी कि ये मुसलमानों की संपत्ति पर सरकार का ग़ैर ज़रूरी दख़ल है तो कुछ लोगों ने इसकी तारीफ़ करते हुए कहा कि अगर उसने ऐसा नहीं किया होता तो "हम अपनी सारी ज़मीन वक़्फ़ बोर्डों के हाथों गंवा चुके होते."
ऊपर के उद्धरण में जो भावना दिखती है वो लोकसभा और राज्यसभा में इस बिल को लाने से पहले चलाए गए गहन अभियान से पैदा 'नैरेटिव' का नतीजा है.
इस नैरेटिव के समर्थन में आए भाजपा के लोकसभा सदस्य संबित पात्रा के बयान ने आम तौर पर प्रतिक्रिया न देने वाले क़ानूनी और इस्लामी इतिहास के विशेषज्ञों सहित कई लोगों को हैरान कर दिया.
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पात्रा ने क्या कहा? इस्लामी देशों में वक़्फ़ की वास्तविकता क्या है? भारत की तुलना इस्लामिक देशों से करने पर क़ानूनी विशेषज्ञ क्यों आपत्ति जताते हैं?
वक़्फ़ की अवधारणा कैसे अस्तित्व में आई? इसकी राजनीतिक धारणा क्या है और भारत में यह इतनी प्रभावशाली कैसे हो गई? आइए जानते हैं.
संबित पात्रा ने संसद में कहा, ''मैं छाती ठोक कर कहना चाहता हूं कि पूरी दुनिया में अगर मुसलमान कहीं सुरक्षित और संरक्षित है तो वह देश भारत है. इस्लामिक देशों में वक़्फ़ की क्या स्थिति है? क्या इस्लामी देशों में वक़्फ़ संपत्तियां मौजूद हैं?"
उन्होंने आगे कहा, "मैं उन इस्लामिक देशों के नाम पढ़ूंगा जहां वक़्फ़ के नाम का वजूद नहीं है. तुर्की में नहीं है, लीबिया में नहीं है, मिस्र में नहीं है, सूडान में नहीं है, लेबनान में नहीं है, सीरिया में नहीं है, जॉर्डन में नहीं है, ट्यूनीशिया में नहीं है, इराक़ में नहीं है. भारत में वक़्फ़ बोर्ड है. वक़्फ़ संपत्ति को क़ानूनी सुरक्षा दी गई है.''
कई इस्लामिक देशों में वक़्फ़ का वजूद नहीं जबकि भारत में वक़्फ़ बोर्ड को क़ानूनी मान्यता प्राप्त है, उसके बाद भी हंगामा क्यों बरपा हुआ है? #WaqfAmendmentBill pic.twitter.com/3DxJasCnR8
— Sambit Patra (@sambitswaraj) April 2, 2025
पात्रा का यह बयान प्रेस सूचना ब्यूरो (पीआईबी) से बहुत अलग नहीं था, जो केंद्र सरकार की ओर से सूचना प्रसारित करता है.
पीआईबी ने पिछले साल अगस्त में प्रस्तावित विधेयक को लोकसभा में पेश किए जाने पर स्पष्टीकरण जारी किया था.
इस्लामी देशों में वक़्फ़ की वास्तविकता क्या है?दुनिया के हर इस्लामी देश में एक वक़्फ़ होता है. हालांकि यह ज़रूरी नहीं है कि इसे वक़्फ़ ही कहा जाए. इसे औक़ाफ़, फ़ाउंडेशन, एंडोमेंट सहित कई अन्य नामों से भी जाना जाता है.
तुर्की में फ़ाउंडेशन का एक महानिदेशालय है. यह 1924 से इस्लामी क़ानून के अनुसार वक़्फ़ का प्रबंधन और ऑडिट करता है. यह ओटोमन साम्राज्य के समय से आज तक काम कर रहा है.
मिस्र में औक़ाफ़ मंत्रालय है. यह ट्रस्ट के क़ानून जैसा है. इसमें ट्रस्टी मस्जिद होती है. यह ज़मीन, बाज़ार और अस्पताल सहित अन्य संपत्तियों का प्रबंधन करती है.
मुहम्मद अली (1805-1848) के शासन के दौरान औकाफ़ का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया था.
इसी तरह से सूडान, सीरिया, जॉर्डन, ट्यूनीशिया और इराक़ जैसे देशों में वक़्फ़ विभाग धार्मिक मामलों के मंत्रालय के तहत काम करते हैं.
दरअसल इराक़ में सुन्नी बंदोबस्ती कार्यालय, शिया बंदोबस्ती कार्यालय और गैर-मुस्लिम समुदायों का बंदोबस्ती कार्यालय है.
वहीं सऊदी अरब, ओमान, संयुक्त अरब अमीरात, बांग्लादेश, मलेशिया, इंडोनेशिया जैसे कई अन्य इस्लामी देशों में धार्मिक मामलों के मंत्रालय के तहत बंदोबस्ती विभाग (जैसे इस्लामी धार्मिक बंदोबस्ती, यरुशलम) या वक़्फ़ हैं.
केरल विश्वविद्यालय में इस्लाम का इतिहास पढ़ाने वाले प्रोफ़ेसर असरफ़ कडक्कल ने बीबीसी हिंदी को बताया, "अधिकांश इस्लामी देशों में एक औक़ाफ़ मंत्रालय होता है जो वक़्फ़ को देखता है. उनके विभागों में उलेमा जैसे न्यायविद या धार्मिक विद्वान होते हैं. यह सभी इस्लामी न्यायशास्त्र का पालन करते हैं. हमारे देश में यह व्यवस्था अलग है क्योंकि यह मुस्लिम देश नहीं है."
जामिया मिल्लिया में इस्लामिक स्टडीज के एमेरिटस प्रोफ़ेसर अख़्तरुल वासे ने बीबीसी हिंदी को बताया, "इस्लामी देशों में वक़्फ़ होते हैं जो हमारे वक़्फ़ या बंदोबस्ती विभागों की तरह ही होते हैं."
वह बताते हैं, "वक़्फ़ की शुरुआत बहर-ए-मुल्ला में हुई थी. यह एक दान था जिसे पैग़म्बर मोहम्मद के चचेरे भाई और साथी उस्मान इब्न अफ़्फ़ान ने बनाया था."
वासे ने कहा कि वक़्फ़ की अवधारणा तब सामने आई जब ख़लीफ़ा उस्मान को एहसास हुआ कि रेगिस्तानी क्षेत्र में पानी की कमी के कारण मदीना के पास एक व्यक्ति पानी बेच रहा था.
उन्होंने कहा, "इसके कारण उन्होंने अल्लाह के नाम पर पानी की सुविधा ख़रीदी ताकि ऊंटों के लिए पानी मुफ़्त में उपलब्ध हो सके. 1400 साल बाद भी यह वक़्फ़ मौजूद है."
पटना में चाणक्य विधि विश्वविद्यालय के कुलपति और क़ानूनी मामलों के विशेषज्ञ विद्वान फ़ैज़ान मुस्तफ़ा और सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता शाहरुख़ आलम जैसे क़ानूनी विशेषज्ञों ने भारतीय वक़्फ़ की तुलना इस्लामी देशों से करने पर बुनियादी तौर पर आपत्ति जताई है.
मुस्तफ़ा ने बीबीसी हिंदी से कहा, "हमें अपनी तुलना इस्लामी देशों से बिल्कुल नहीं करनी चाहिए क्योंकि हम कोई धर्म तंत्र नहीं हैं. इस्लाम उनका राजकीय धर्म है. इस्लामी राष्ट्र में धार्मिक मामलों के लिए मंत्रालय होता है. हमारे पास अल्पसंख्यक मामलों के लिए मंत्रालय है और हम अपने संविधान से संचालित होते हैं."
शाहरुख़ आलम ने बीबीसी हिंदी को बताया, "हर देश की अपनी व्यवस्था होती है. इस्लामी राष्ट्र से तुलना वाज़िब नहीं है. जब भी कोई बात भारतीय मुसलमानों से जुड़ी होती है, तो कहा जाता है कि दूसरे देशों में ऐसा नहीं होता है. इसकी जगह, तुलना भारत में जो हो रहा है उससे होनी चाहिए. जैसे भारत में क़ानूनी व्यवस्था क्या है? इस्लामी देशों से हमारा क्या लेना-देना है?"
वह उदाहरण देते हुए कहती हैं कि इस्लामी देशों में सड़कों पर नमाज़ पढ़ने की अनुमति नहीं है लेकिन भारत में सड़कों पर धार्मिक जुलूस निकालने की अनुमति है. उनकी क़ानूनी प्रणाली की हमारी प्रणाली से कैसे तुलना की जा सकती है?
क्या वक़्फ़ को लेकर गढ़ा गया नैरेटिव?सांसद और डीएमके के उप महासचिव ए. राजा ने फैलाई जा रही ग़लत धारणा का लोकसभा में उल्लेख किया.
उन्होंने लोकसभा में कहा कि संसद में नए क़ानून के मसौदे को पेश किए जाने से पहले संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) ने एक जांच की थी.
उन्होंने कहा कि लोकसभा में अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने जब वक़्फ़ विधेयक पेश किया था, तो कहा था कि तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली ज़िले के एक पूरे गांव की हज़ारों एकड़ ज़मीन वक़्फ़ की संपत्ति घोषित कर दी गई है.
इस मामले की जब जांच की गई तो पाया गया कि ऐसा कुछ नहीं है. ज़िला कलेक्टर, राजस्व अधिकारी और एक अन्य अधिकारी ने जेपीसी के समक्ष इस बात की गवाही भी दी.
ए. राजा ने कहा कि क़ानून को सही ठहराने के लिए रिजिजू ने इस तरह की "बेबुनियाद कहानी" गढ़ी.
मुस्तफ़ा और आलम दोनों ने इस बात का खंडन किया कि वक़्फ़ बोर्ड अपनी इच्छानुसार कोई भी ज़मीन ले सकता है.
मुस्तफ़ा ने कहा, "बोर्ड मुस्लिमों का निजी निकाय नहीं है. यह एक सरकारी निकाय है. भारत के संविधान के अनुच्छेद 12 में वक़्फ़ को केंद्र और राज्य सरकारों, संसद और राज्य विधानसभाओं के साथ-साथ वैधानिक निकायों के रूप में परिभाषित किया गया है. वक़्फ़ बोर्ड एक वैधानिक निकाय है. इसके लिए सरकार एक सीईओ नियुक्त करती है. यह एक सरकारी अधिकारी होता है. नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) वक़्फ़ बोर्डों का ऑडिट करता है."
आलम ने बताया कि कई मौकों पर उच्चतम न्यायालय ने इस तर्क को सही ठहराया है, "वक़्फ़ बोर्ड अनुच्छेद 12 के तहत आता है और यह मनमानी नहीं कर सकता. किसी भी भूमि को वक़्फ़ संपत्ति घोषित करने से पहले तीन स्तर पर जांच की जाती है. इसके बाद सर्वेक्षण आयुक्त राज्य सरकार को एक रिपोर्ट भेजता है. राज्य सरकार इसे पुनर्विचार के लिए फिर से वक़्फ़ बोर्ड को भेजती है. इसके बाद बोर्ड पूरी तरह से विचार करके फिर से सरकार को भेजता है. फिर राजस्व विभाग इसे राजपत्र में अधिसूचित करता है."
सांसद ए. राजा ने लोकसभा में धारणा को लेकर जो बात कही, वह दूसरी जगहों पर भी उसी तरह से फैली हुई है.
उदाहरण के लिए पिछले हफ़्ते बेंगलुरु में एक बुज़ुर्ग महिला ने खुशी जताई कि लोकसभा ने वक़्फ़ बिल पास कर दिया है.
उन्होंने कहा, "नहीं तो हम अपनी सारी ज़मीनें वक्फ़ बोर्ड के हाथों खो देते."
कुछ लोगों का आरोप है कि वक़्फ़ के ख़िलाफ़ माहौल गढ़ने में इसी तरह के नैरेटिव ने अहम रोल निभाया. लोगों को लगने लगा कि वक़्फ़ आम लोगों की संपत्ति पर कब्ज़ा कर लेता है.
तो क्या भारत में राजनीति से प्रेरित अफ़वाहें फैलाने का काम इतना ज़्यादा हो गया है?
ब्रांड गुरु हरीश बिजूर बीबीसी हिंदी से कहते हैं, "ब्रांड की मेरी परिभाषा बहुत ही सरल है. ब्रांड एक विचार है. इस हद तक वक्फ़ भी एक विचार है. ब्रांड विचार के साथ एक धारणा भी है और ऐसा भी होता है कि कोई धारणा सच्चाई से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है."
उन्होंने कहा कि वक़्फ़ और उसके बारे में जो कुछ भी है, वह एक विचार है. इस विचार को पुष्ट करने में मीडिया की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका है. यह विचार वास्तविकता से बहुत दूर हो सकता है, वास्तविक हो सकता है और कभी-कभी इसके वास्तविक होने की आवश्यकता भी नहीं होती है.
उन्होंने कहा, "धारणाएं, विशेष रूप से उपभोक्ता धारणाएं बहुत जल्दी बन जाती हैं और अधिकांश समय उपभोक्ताओं में धारणा बनाने के लिए हम मास मीडिया पर निर्भर रहते हैं. उपभोक्ता आमतौर पर इसमें शामिल नहीं होते हैं लेकिन वह हर चीज़ पर एक अपना दृष्टिकोण रखना चाहते हैं."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित
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