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बॉलीवुड के अनकहे किस्सेः भारत कुमार उर्फ़ मनोज कुमार का जाना

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– अजय कुमार शर्मा

प्रख्यात अभिनेता और निर्माता निर्देशक मनोज कुमार 4 अप्रैल 2025 को हमारे बीच नहीं रहे। अपनी देशभक्ति की फिल्मों और उनमें अपने नाम भारत के कारण उन्हें लोग भारत कुमार के नाम से ही बुलाने लगे थे। लेकिन मनोज कुमार को केवल भारत कुमार की दृष्टि से ही देखा जाना, उनकी अन्य दूसरी खासियतों को नज़र अंदाज करना है। इसमें कोई दो राय नहीं कि वह देशभक्त थे, लेकिन उनकी देशभक्ति आजकल के प्रचलित देशभक्ति के पैमानों से अलग थी। उनकी देशभक्ति में भारत की वह उदार और परंपरागत छवि थी, जिसे उसके महापुरुषों ने लंबे त्याग और बलिदान से हासिल किया था। देशभक्ति का यही स्वरूप शायद आम जनता को भी पसंद है, तभी देशभक्ति की उनकी सभी फिल्मों को दर्शकों का भी भरपूर प्यार मिला।

उनकी देशभक्ति की सभी फिल्में चाहें उपकार हो, पूरब और पश्चिम हो या क्रांति हो, उसमें देश के लिए बलिदान देने के लिए हिंदू , मुस्लिम,सिख और ईसाई सभी शामिल हैं । इस देशभक्ति में किसी खास तबके या धर्म का एकाधिकार नहीं था। इन फिल्मों की पृष्ठभूमि में किसी खास देश का विरोध भी नहीं है, बल्कि वह इसके लिए भारतीय समाज के सांस्कृतिक पतन को ज़िम्मेदार ठहराते हैं। उनकी संतुलित देशभक्ति का एक कारण शायद यह भी है कि वह एटमाबाद में जन्मे थे और दिल्ली एक शरणार्थी के रूप में पहुंचकर दो साल रिफ्यूजी कैंप में ही रहे थे।

अब अगर उनकी अन्य प्रतिभाओं की बात करें तो देशभक्ति की सफल फिल्मों के निर्माण -निर्देशन से पहले उनका लंबा कैरियर एक सफल अभिनेता के रूप में भी है, जिसमें वह लगभग 40 फिल्में करते हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने अपनी एक ख़ास पहचान तब हासिल की, जब उस समय की प्रसिद्ध स्टार तिकड़ी दिलीप कुमार, राजकपूर और देवानंद लोगों के दिलों में राज करती थी, लेकिन उन्होंने खुद संघर्ष करके अपनी एक अलग छवि और पहचान बनवाई। फिल्मों में उनका कोई नहीं था न ही वह किसी समृद्ध घराने के थे, हां उनके चाचा-चाची जरूर बंबई में रहते थे और निर्माता लेखराज भाखरी, मुल्कराज भाखरी उनके दूर के रिश्तेदार थे, लेकिन सिनेमा और दर्शकों के मन की गहरी समझ के सहारे उन्होंने अपने समय में कुछ ऐसी फिल्में चुनीं, जिन्हें दर्शकों का भरपूर प्यार मिला। कांच की गुड़िया और हरियाली और रास्ता के बाद वह अपनी राह खुद बनाते चले गए।

नायक के रूप में उनका व्यक्तित्व दिलीप कुमार और राज कपूर का मिलता-जुलता स्वरूप था, यानी सीधा-साधा नायक जो प्यार में धोखा खाता है या फिर उसे पा नहीं पाता है। राज घोसला ने उन्हें अपनी जासूसी फिल्म, वो कौन थी से एक नई छवि दी, जिसे गुमनाम और अनीता में भी दोहराया गया। अपने अभिनय के सर्वोच्च समय में वे नायक के रूप में ऐसी ही फिल्में करते हैं, जिनमें वह अपनी सभ्यता या संस्कृति से कोई समझौता करते नजर नहीं आते हैं, बल्कि इसके लिए अपने प्यार को भी छोड़ने के लिए तैयार रहते हैं। पहचान, यादगार, दो बदन, नीलकमल, आदमी, बनारस का ठग, डॉ विद्या अनेक ऐसी फिल्में हैं। एक समय में उन्होंने बाज़ार की ज़रूरत को देखते हुए बेईमान, दस नंबरी और संन्यासी जैसी सफल फ़िल्में कीं, लेकिन यहां पर भी वे देश या समाज में फैले भ्रष्टाचार और आडंबरों से लड़ते हुए नज़र आते हैं। एक सजग और सफल निर्देशक के रूप में उनकी पारी वैसे तो 1965 में प्रदर्शित हुई फिल्म शहीद से ही शुरू हो जाती है।

शहीद भगत सिंह के जीवन पर बनी इस फिल्म के लिए उन्होंने सारा शोध करके पटकथा तो लिखी ही, बल्कि इसके निर्माण में अपने मित्र केवल कश्यप का पूरा साथ दिया। वह इस फिल्म के लिए हर उस व्यक्ति से मिले जो उस समय जिंदा था और किसी भी रूप में भगत सिंह के संपर्क में आया था। उनकी मां और भाई से भी वे मिले। इस फिल्म को उन्होंने पूरी शिद्दत से बनाया और भगत सिंह पर पहले आई असफल फिल्मों के बावजूद यह फिल्म बेहद सफल रही। इसका एक-एक गीत अमर हो गया। हालांकि, इसमें निर्देशक के रूप में एस. शर्मा का नाम गया था, लेकिन सब जानते हैं कि यह फिल्म उनके द्वारा ही निर्देशित थी।

इसी फिल्म को देखकर लालबहादुर शास्त्री ने अपने नारे जय जवान, जय किसान को लेकर फिल्म बनाने को कहा। तब हमारे सामने उपकार जैसी बेहद सफल फिल्म सामने आई और मनोज कुमार भारत कुमार के रूप में पहचाने जाने लगे, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसके बाद 1971 में वे शोर जैसी मार्मिक फिल्म बनाते हैं जो पिता पुत्र के प्यार की अनोखी कहानी है। अपने गूंगे बच्चे को आवाज देने के लिए एक पिता इतना संघर्ष करता है कि जिस दिन उसके बच्चे की आवाज वापस आती है, वह अपनी श्रवण शक्ति ही खो बैठता है। इस फिल्म का गीत, संगीत, कास्टिंग सब अद्भुत है। उनके संघर्ष में सब अड़ोसी- पड़ोसी यानी हर धर्म और तबके के लोग शामिल हैं।

रोटी कपड़ा और मकान में भी उस समय की महंगाई, भ्रष्टाचार, मिलावट, बेरोजगारी,राजनीति पर तीखे तंज हैं। क्रांति जैसी सफल फिल्म के बाद वे कलयुग और रामायण में रामायण को आदर्श मानने वाले लोगों के कलयुग में किए जाने वाले छद्म आदर्शों पर तीखा कटाक्ष करते हैं। इस कारण उनका विरोध भी हुआ था। उनकी फिल्म क्लर्क भी अलग तरह की फिल्म हैं और तत्कालीन भारतीय राजनीतिक और सरकारी दफ्तरों में फैले भ्रष्टाचार पर तीखी टिप्पणी करती है। क्लर्क में वह पहली बार पाकिस्तानी कलाकारों मोहम्मद अली और जेबा को लेते हैं जो बाद में एक ट्रेंड बनता है।

वह अपनी फिल्मों के गीतों द्वारा भी आम जनता तक अपने संदेश व्यापक तरीके से पहुंचाने में सिद्धहस्त थे। उनके गीत देशभक्ति के अलावा महंगाई और राजनीति के वर्तमान स्वरूप पर साफ-साफ बात करते हैं। गीत-संगीत की गहरी समझ उन्हें कई बार राजकपूर से ऊपर खड़ा करती है। एक बात और कि वह राज कपूर की तरह अपनी विचारधारा में कोई समझौता नहीं करते और न ही देवानंद की तरह अपने आप को लगातार दोहराते हैं। वह जब समझ जाते हैं कि अब उनकी बात लोगों तक नहीं पहुंच रही है, तो वह अपने को समेट लेते हैं। अत: हमें उन्हें भारत कुमार के साथ ही ऐसे श्रेष्ठ अभिनेता और निर्माता निर्देशक के रूप में याद रखना चाहिए जिन्होंने आम जनता को स्वस्थ मनोरंजन के साथ ही सामाजिक संदेशों से भी रूबरू कराया।

चलते-चलते मनोज कुमार एक अच्छे अभिनेता, निर्देशक के साथ ही लेखक, संपादक तो थे ही कैमरे से भी अनेक प्रयोग करते रहे। शोर में कई जगह उन्होंने फ्रीज़ शॉट्स का अदभुत प्रयोग किया है। अपने गीतों में शीशे से लेकर बैकग्राउंड तक के अनेक प्रयोगों की व्यापक चर्चा हुई। अपने सहयोगियों के काम आने के मामले में भी वे बहुत लोकप्रिय रहे। उन्होंने अपने बचपन के मित्र केवल कश्यप का जीवन भर सहयोग किया और बाद में अपने सचिव के रूप में भी उनकी सेवाएं लीं। उस जमाने के अपने सभी निर्माता निर्देशको की आर्थिक सहायता की। अपने भाई के लिए पेंटर बाबू और अपने बेटे के लिए कलाकार फिल्म बनाई। उन्होंने प्राण और प्रेम चोपड़ा को नई छवियां प्रदान कीं। अपने आसपास के आम लोगों का इलाज वे होम्योपैथी के सहारे करते रहे, जिसकी उन्हें गहरी समझ थी।

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हिन्दुस्थान समाचार / CP Singh

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