ढाका, 22 अगस्त . पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना के अगस्त 2024 में सत्ता से बेदखल होने के बाद से बांग्लादेश में हिंसा और अराजकता का माहौल है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, अदालतों में न्याय मिलने की बजाय अब भीड़तंत्र यानी ‘मॉब जस्टिस’ ने न्याय प्रणाली की जगह ले ली है.
मानवाधिकार संगठनों के हवाले से रिपोर्ट में कहा गया है कि अगस्त 2024 से मई 2025 तक भीड़ की हिंसा में 174 लोग मारे गए. इनमें राजनीतिक कार्यकर्ता से लेकर छोटे दुकानदार तक शामिल हैं.
ढाका यूनिवर्सिटी में छात्र तौफज्जल की हत्या कर दी गई, वहीं जहांगिरनगर में मसूद को मार डाला गया. शोहाघ को दिनदहाड़े पत्थर से कुचलकर मार दिया गया, जबकि हमलावर उसके सीने पर नाचते रहे. अदालत परिसरों तक को नहीं छोड़ा गया. भीड़ ने न्यायालयों पर धावा बोलकर पुलिस हिरासत में बंद आरोपियों की पिटाई की. स्थिति इतनी भयावह हो गई कि जज भी सुरक्षा कारणों से अदालत लगाने से हिचकिचाने लगे.
रिपोर्ट के अनुसार, इस न्यायिक पतन का असर वकालत पेशे पर भी पड़ा. शेख हसीना सरकार के समर्थक वकीलों को निशाना बनाया गया. उनके चैंबर्स जला दिए गए, बार एसोसिएशन टूट गए, 150 से ज्यादा वकीलों को जेल में डाल दिया गया और कई को रिमांड पर लिया गया. कुछ देश छोड़कर भाग गए, तो कुछ गुमनामी में चले गए. इस बीच एक नए संगठन ने खुद को “एंटी-फासिस्ट लॉयर्स” घोषित कर क्रांति का संरक्षक बताया, जिससे पेशेवर एकजुटता पूरी तरह बिखर गई.
रिपोर्ट ने कहा कि यूनुस सरकार में विपक्षी कार्यकर्ता लगातार जेलों में सड़ते रहे, जबकि नई सत्ता से जुड़े लोग (बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी, जमात-ए-इस्लामी और नेशनल सिटीजन पार्टी के छात्र) आसानी से जमानत पाते रहे. यहां तक कि पिछले साल जुलाई के विरोध प्रदर्शनों के दौरान हुई हिंसा और अपराधों के लिए भी उन्हें माफी दे दी गई.
सबसे विवादास्पद पहलू यह रहा कि सरकार के प्रमुख सलाहकार बने मोहम्मद यूनुस खुद श्रमिक शोषण के मामलों से बरी हो गए, जिसे आलोचकों ने “चुनिंदा न्याय” करार दिया.
रिपोर्ट में व्यंग्यात्मक टिप्पणी की गई कि “जो कभी युद्ध अपराधियों का बचाव करते थे, उन्हें ही अब अभियोजक बना दिया गया.
रिपोर्ट के मुताबिक, बांग्लादेश का संविधान भी खतरे में आ गया है क्योंकि ‘जुलाई चार्टर’ या ‘डिक्लेरेशन’ नामक एक अधूरा दस्तावेज वैकल्पिक संविधान के रूप में सामने लाया गया. इसे आलोचकों ने भ्रामक और त्रुटिपूर्ण करार दिया.
रिपोर्ट में चेतावनी दी गई कि “कथित ‘जुलाई क्रांति’ को मुक्ति के रूप में बेचा गया, लेकिन धीरे-धीरे लोग इसे भ्रामक, झूठे वादों पर आधारित और जल्दबाजी में उठाया गया लापरवाह कदम मानने लगे. मुक्ति संग्राम से जन्मे संविधान को त्यागना मात्र अकादमिक गलती नहीं, बल्कि राष्ट्र की पहचान पर ही संकट है.”
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डीएससी/
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