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अमेरिका से क्यों उचट रहा यूरोप का मन? डगमगाया भरोसा, क्या ये है पीछे की वजह

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‘मैंने उस दौरान पीएम मोदी को अलास्का की बैठक के बारे में बताया था।’ चीन के थ्येनचिन में प्रोटोकॉल से इतर जब भारतीय प्रधानमंत्री और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच लिमोजिन डिप्लोमेसी हुई, तो पूरी दुनिया की नजरें उस पर टिक गईं। कार में बिताए उन 45 मिनटों में क्या बात हुई? पुतिन से यही सवाल किया गया था। दोनों नेताओं का पुतिन की कार में एक साथ सफर करना उसी वक्त लिया गया फैसला था। थ्येनचिन से ठीक 15 दिन पहले पुतिन ने अलास्का में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ उनकी कार ‘बिग बीस्ट’ में सवारी की थी।



जेलेंस्की का दावा: अलास्का से थ्येनचिन तक, इन दो यात्राओं के दरम्यान यूक्रेन संकट के हल को लेकर मामला काफी बदल चुका है। ऐसा लग रहा है कि शांति की राह निकालने की कोशिशों का स्टेयरिंग अब एक हाथ में नहीं। पीएम नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति पुतिन के बीच हुई बातों का पूरा ब्योरा अभी तक सामने नहीं आया है। लेकिन, इस मुलाकात से एक दिन पहले ही यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की ने पीएम मोदी से फोन पर बात की थी। जेलेंस्की ने दावा किया था कि पुतिन और दूसरे नेताओं को जरूरी सिग्नल देने के लिए भारतीय प्रधानमंत्री तैयार हैं। जिस वक्त जेलेंस्की ने पीएम मोदी को फोन मिलाया, उसी दौरान फिनलैंड की विदेश मंत्री एलिना वोल्टोनेन और विदेश मंत्री जयशंकर ने भी यूक्रेन पर चर्चा की थी।



फोन का सिलसिला: थ्येनचिन में पुतिन के साथ बैठक से चार दिन पहले पीएम मोदी के पास हेलसिंकी से भी एक कॉल आई थी - ट्रंप के करीबी और फिलहाल अमेरिका और यूरोप के बीच पुल माने जाने वाले फिनलैंड के राष्ट्रपति अलेक्जेंडर स्टब की। वह पिछले महीने वाइट हाउस में ट्रंप और जेलेंस्की की मुलाकात के दौरान भी मौजूद थे। मोदी के साथ बातचीत के बाद स्टब ने एक्स (पूर्व ट्विटर) पर लिखा - भारत की बात न सिर्फ दक्षिण, पश्चिम और पूर्व में सुनी जाती है बल्कि मानी भी जाती है। स्टब के इन शब्दों के मायने अमेरिका से लेकर यूरोप तक की डिप्लोमेसी समझने वाले जानते हैं। इसके बाद से ही पीएमओ और साउथ ब्लॉक में कई देशों से फोन आ चुके हैं।



यूरोप की उम्मीद: शनिवार शाम को फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने पीएम मोदी से बात की। इससे दो दिन पहले यूरोपीय परिषद के अध्यक्ष एंटोनियो कोस्टा और यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेन ने संयुक्त कॉल की थी। उर्सुला से लेकर बीते दिनों भारत दौरे पर आए जर्मनी के विदेश मंत्री योहान वाडेफुल तक, यूरोप के कई नेता मान रहे हैं कि शांति कायम कराने में भारत की अहम भूमिका है। खास बात यह भी है कि यूरोपीय नेताओं ने पेरिस में अहम बैठक के बाद भारतीय पीएम को फोन किया था।



बदली डिप्लोमेसी: ट्रंप ने चुनाव जीतने से पहले ही दावा किया था कि रूस-यूक्रेन युद्ध खत्म करा देंगे। लेकिन वाइट हाउस में जेलेंस्की के साथ जिस तरह की तनातनी दुनिया ने लाइव टीवी पर देखी, उसने यूएस डिप्लोमेसी की पूरी परिभाषा को ही उलट दिया। यूरोप में अलास्का समिट के आलोचकों ने कहा कि पुतिन के लिए रेड कारपेट बिछाने के बाद ट्रंप जब वॉशिंगटन लौटे, तो उनके हाथ खाली थे - पुतिन से न कोई वादा मिला, न कोई कमिटमेंट। यूरोपीय नेता पहले से ही ऐसी किसी मीटिंग के हक में नहीं थे, जिसमें जेलेंस्की मौजूद न हों। यहां मसला भरोसे और विश्वसनीयता का भी है।



एक पर भरोसा नहीं: अलास्का की बैठक से ठीक पहले फ्रेंच राष्ट्रपति मैक्रों ने यूरोप को इस वार्ता से पूरी तरह हटाने को लेकर चिंता जाहिर की थी। वह भी तब, जबकि ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में यूरोप ने यूक्रेन के लिए फंडिंग का ज्यादा बोझ खुद उठाने की कोशिश की है। ऐसे में स्थायी शांति की तलाश कर रहे यूरोप के कई देश अब मल्टीपल पावर सेंटर्स को एंगेज करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। ग्लोबल साउथ की आवाज भारत ऐसे ही एक केंद्र के रूप में उभर कर सामने आता है।



संतुलित रुख: भारत ने हमेशा कहा है कि वह सभी के साथ संपर्क में बना हुआ है। यूक्रेन युद्ध भारतीय डिप्लोमेसी के लिए लिटमस टेस्ट की तरह रहा। भारत अपने राष्ट्रीय हितों को साधते हुए निष्पक्षता की एक महीन रस्सी पर चलता दिखा। रूस की आलोचना करने वाले अंतरराष्ट्रीय प्रस्तावों से हमेशा दूरी बनाते हुए भी नई दिल्ली ने कहा कि यह युद्ध का दौर नहीं है। जेलेंस्की और पुतिन बीते साल ही युद्ध के हल को लेकर भारत की भूमिका पर भरोसा जता चुके हैं।



इमेज का असर: स्विट्जरलैंड में यूरोप की ओर से बुलाई गई शांति वार्ता में चीन के रुख से अलग भारत ने हिस्सा तो लिया था, लेकिन रूस की गैर मौजूदगी में इसके साझा बयान पर हस्ताक्षर करने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि सभी पक्षों की उपस्थिति ही स्थायी शांति की पहली शर्त है। डायलॉग और डिप्लोमेसी को लेकर नई दिल्ली के स्टैंड को यूक्रेन अच्छी तरह समझता है। साल 2023 में जी-20 समिट के घोषणापत्र पर आम सहमति को भारत की कूटनीतिक कामयाबी माना गया। भारत की शांति के पक्षकार देश की छवि की वजह से ही ऐसा हो पाया। ऐसे में भारत से अब उम्मीदें लगी हैं, तो हैरानी कैसी।

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