दुमका, 11 अप्रैल . सिदो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय में 46 वां संथाली साहित्य दिवस और संथाली भाषा के साहित्यकार डॉ. डोमन साहू समीर की जन्मशताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य मे प्रशासनिक भवन स्थित कॉन्फ्रेंस हॉल में समारोह का आयोजन हुआ. कार्यक्रम में कई प्रतिष्ठित साहित्यकार, शोधार्थी, छात्र और विश्वविद्यालय के प्राध्यापक शामिल हुए. कार्यक्रम का कुलपति प्रो बिमल प्रसाद सिंह की अध्यक्षता में हुई. समारोह की शुरुआत पारंपरिक संथाली रीति-रिवाजों के अनुसार लोटा-पानी से अतिथियों के स्वागत से हुआ.
संथाली विभागाध्यक्ष सह कार्यक्रम संयोजक डॉ सुशील टुडू ने कहा कि 11 अप्रैल 1979 को ही विश्वविद्यालय में संथाली भाषा और साहित्य की पढ़ाई की शुरुआत हुई थी. उन्होंने बताया कि यह पहली बार है. जब यह आयोजन विश्वविद्यालय के नए परिसर में आयोजित किया जा रहा है. डॉ टुडू ने इस आयोजन को संथाली भाषा-साहित्य के गौरवपूर्ण इतिहास से जोड़ते हुए बताया कि यह वर्ष डॉ डोमन साहू की जन्मशताब्दी का वर्ष भी है. इनका योगदान संथाली साहित्य को नई ऊंचाइयों तक ले गया. इसके बाद समारोह की स्मारिका का विमोचन अतिथियों ने किया. इसमें संथाली साहित्य के विविध पहलुओं पर शोध आधारित लेख संकलित हैं.
मुख्य अतिथि पूर्व मंत्री डॉ. लुईस मरांडी ने कहा कि हमें संथाली साहित्य की वर्तमान प्रगति पर विचार करना चाहिए. उन्होंने कहा कि साहित्य केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं, बल्कि समाज का आईना और संस्कृति का संवाहक होता है. उन्होंने नई पीढ़ी को साहित्यिक धरोहरों से जोड़ने की आवश्यकता पर बल दिया.
कुलपति डॉ विमल प्रसाद सिंह ने कहा कि यह आयोजन मात्र एक भाषा उत्सव नहीं, बल्कि मानसिक और सांस्कृतिक वैभव का प्रतीक है. संथाली भाषा आदिवासी अस्मिता, भाषाई पहचान और जनजीवन से गहराई से जुड़ी हुई है. उन्होंने कहा कि यह भाषा प्रकृति के निकट जीवन की सुंदर अभिव्यक्ति है. डॉ डोमन साहू “समीर“ ने इस भाषा को न केवल जिया बल्कि उसे गहराई से समझा और अपने साहित्य में उसका यथार्थ चित्रण किया.
द्वितीय सत्र में डॉ. डोमन साहू के प्रपौत्र कौशल किशोर ने उनके रचनात्मक जीवन पर प्रकाश डाला.
उन्होंने बताया कि कैसे डॉ समीर ने अपने साहित्य के माध्यम से समाज को दिशा दी. उन्होंने 1997 में साहित्य अकादमी की ओर से दिल्ली में आयोजित सम्मान समारोह की स्मृतियों को साझा किया.
इस अवसर पर मूलमिन टुडू ने बताया कि कैसे उन्होंने विश्वविद्यालय में संथाली विभाग की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और सामाजिक आंदोलनों में भाग लेने के कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा.
सनातन मुर्मू ने संथाली लोककथाओं और देवनागरी लिपि के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि किस प्रकार लिपि परिवर्तन से भाषा का प्रचार-प्रसार अधिक व्यापक हुआ है. डॉ हांसदा ने डॉ. समीर के जीवन और साहित्य पर संक्षिप्त जानकारी देते हुए संथाली साहित्यकारों के प्रति आभार व्यक्त किया. इनके अथक प्रयासों से संथाली भाषा आज एक प्रतिष्ठित स्थिति में है. समापन समारोह में कुलपति ने प्रेरणादायक वक्तव्य में कहा कि हमें नए साहित्यकारों को प्रोत्साहित करना चाहिए.
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/ नीरज कुमार
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