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नूर इनायत खान: भारतीय मूल की जासूस जिसने नाज़ियों को दी थी चुनौती!

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नूर-उन-निसा इनायत खान का जन्म 1 जनवरी 1914 को मॉस्को में हुआ था। उनके पिता, हजरत इनायत खान, एक सूफी संत और संगीतकार थे, जबकि उनकी मां, ओरा रे बेकर, एक अमेरिकी कवयित्री थीं। नूर का परिवार भारतीय शाही वंश से जुड़ा था, क्योंकि वे मैसूर के शासक टीपू सुल्तान के वंशज थे। बचपन में नूर का परिवार लंदन और फिर पेरिस चला गया, जहां उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी की। संगीत और दर्शन से भरे इस माहौल ने नूर को एक संवेदनशील और साहसी व्यक्तित्व दिया।

युद्ध के बीच जासूस बनने का साहस

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब नाज़ी सेना ने फ्रांस पर कब्जा कर लिया, नूर का परिवार इंग्लैंड भाग गया। युद्ध की भयावहता के बीच, नूर ने शांति की अपनी सूफी मान्यताओं को एक तरफ रखकर ब्रिटेन की मदद करने का फैसला किया। 1940 में, वे वीमेन ऑक्जिलरी एयर फोर्स (WAAF) में शामिल हुईं और बाद में 1942 में ब्रिटेन की स्पेशल ऑपरेशंस एक्जिक्यूटिव (SOE) ने उन्हें भर्ती किया। नूर को कोडनेम 'मेडलिन' दिया गया, और वे फ्रांस में नाज़ी-कब्जे वाले क्षेत्रों में जासूसी करने वाली पहली महिला वायरलेस ऑपरेटर बनीं।

नाज़ियों के खिलाफ अनथक संघर्ष

1943 में, नूर को फ्रांस भेजा गया, जहां उन्होंने खतरनाक परिस्थितियों में काम किया। उनके पास एक घातक साइनाइड गोली थी, जिसे वे पकड़े जाने पर इस्तेमाल कर सकती थीं। नूर ने पेरिस में फ्रांसीसी प्रतिरोध समूहों के साथ मिलकर महत्वपूर्ण जानकारी लंदन भेजी। जब उनके कई साथी पकड़े गए, तब भी नूर ने इंग्लैंड लौटने से इनकार कर दिया और अकेले ही मिशन को जारी रखा। उनकी बहादुरी ने नाज़ी योजनाओं को बाधित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

बलिदान और सम्मान

अक्टूबर 1943 में, नूर को गेस्टापो ने पकड़ लिया। कठोर पूछताछ और यातनाओं के बावजूद, उन्होंने कोई जानकारी नहीं दी। 1944 में, उन्हें दाखाउ एकाग्रता शिविर में ले जाया गया, जहां 13 सितंबर को उनकी हत्या कर दी गई। उनकी आखिरी बात 'लिबर्टे' (स्वतंत्रता) थी, जो उनकी अटूट भावना को दर्शाती है। युद्ध के बाद, नूर को ब्रिटेन के सर्वोच्च नागरिक सम्मान, जॉर्ज क्रॉस, और फ्रांस के क्रॉइक्स डी गुएरे से सम्मानित किया गया।

आज भी प्रेरणा की मिसाल

नूर की कहानी साहस, बलिदान और मानवता की जीत की कहानी है। लंदन में उनके सम्मान में ब्लू प्लाक, रॉयल एयर फोर्स क्लब में उनकी तस्वीर, और दाखाउ में स्मारक उनकी वीरता को याद दिलाते हैं। उनकी जीवनी, स्पाई प्रिंसेस लिखने वाली श्राबनी बासु कहती हैं, "नूर ने फासीवाद के खिलाफ लड़ाई में अपनी जान दे दी, लेकिन उनकी शांति और सद्भाव की संदेश आज भी जीवित है।"

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